*आत्मनिर्भरता*
-सभाराज सिंह
आई. ए. एस. (सेवा निवृत)
बस्ती ,उत्तर प्रदेश, भारत
माननीय प्रधानमंत्री जी ने दिनाँक 12 मई 2020 को संबोधन में निम्न श्लोक कहा था"सर्वं परवशं दुःखं सर्वं आत्म वशं सुखम् । एतद्विद्यात्समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः।"
अर्थात वह सब कुछ जो दूसरों के अधीन है वह दुख है। जो कुछ अपने बस में होता है वही सुख है। यही संक्षेप में सुख और दुख का लक्षण है। उपरोक्त श्लोक स्पष्ट रूप से आत्मनिर्भरता की ओर इशारा करता है। पिछले कुछ वर्षाे में यदि हम देखे तो पाएंगे कि किसी न किसी वस्तु के लिए दूसरों के ऊपर निर्भरता बढ़ रही थी। यदि हम भारत के ग्रामो पर दृष्टिपात करे तो पाएंगे कि कुछ वर्षो पहले तक हर किसान के पास छोटा मोटा घर, कोई न कोई दुधारू जानवर एवं थोड़ी बहुत खेती होती थी। जानवर को खिलाने के लिए हरा चारा उगाता था, सूखा चारा भूसा से हो जाता था तथा खेत से खाने भर को अनाज हो जाता था। घर के पास सब्जी बो देता था जिससे आलू प्याज को छोड़कर सब्जी निकल आती थी। बहुधा किसान आलू और प्याज भी निकाल लेते थे। जानवर से दूध मिल जाता था। गाय या भैंस को बेच कर पैसा भी इक्ठ्ठा कर लेता था। दूध से घी बनाकर, बेच कर पैसा भी मिल जाता था। मैने अपने बचपन में बहुत महिलाओं को किसी के घर पर बैठकर चरखा कातते देखा है। तब स्वंय सहायता समूह की अवधारणा नहीं थी। लेकिन अपने तौर तरीके से महिलाएं किसी के घर एकत्र होकर चरखा कातती थी तथा स्वराज देश भक्ति की गीत गाती थीं। मतलब यह हुआ कि प्रत्येक परिवार में अपने जीवन भर कि सभी सुविधाएं उपलब्ध थी। मसाले वगैरह को छोड़कर अपनी अवश्यकता की आपूर्ति स्वंय कर लेता था। धीरे-धीरे यह विचाधारा आई कि कई व्यावसाय न करके एक ही व्यावसाय किया जाए तथा बाकी जरूरत की वस्तुए खरीद ली जाए। उदाहरण स्वरूप किसी ने डेयरी लगाई उसी मेें सारे संसधान लगा लिया। मतलब खेती में हरा चारा उगाया, दूध को बेचकर पैसा इक्ठ्ठा किया तथा अन्य जरूरत की वस्तुओं को खरीद लिया। इसी प्रकार किसी ने पूरे खेत में बाग लगा दिया। फल के नीलामी से पैसा बनाकर जरूरत की अपनी वस्तुएं खरीद ली। इसी प्रकार निर्भरता दूसरों पर बढ़ने लगी। छोटी- छोटी वस्तुओं के लिए व्यक्ति दूसरों पर निर्भर होता चला गया। महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज के स्वप्न से हम दूर होते गए। इसी को देश स्तर पर देखा जाए। आजादी मिलने के बाद काफी हद तक हम अपने देश में निर्मित वस्तुओं का उपयोग करते रहे। धीरे-धीरे प्रचार तंत्र से प्रभावित होकर हमे विदेशी वस्तुओं का चस्का लगा। पहले गिनी चुनी वस्तुएं परंतु समय बीतने के साथ हम को हर छोटी बड़ी विदेशी वस्तुएं अच्छी लगने लगी। स्वेदेशी माने पिछड़ापन तथा विदेशी माने सभ्य तथा शहरी। स्वदेशी उपयोग करने वाले देहाती तथा गरीब की श्रेणी में आ गए। छोटी से छोटी वस्तुओं के लिए भी हमारी निर्भरता विदेशों पर बढ़ने लगी। ब्रांडेड का युग आया। हर वस्तु ब्रांडेड - चश्मा, घड़ी से लेकर होटल, रेस्त्रा व कपड़े इत्यादि । वही बड़ा आदमी, वही ज्ञानी जो ब्रांडेड वस्तुओं का इस्तेमाल करे। भौतिकता ने हमे जकड़ लिया। अपने खान, पान पहनावा को भूल गए। शहर से देहात तक विदेशी पहनावा, विदेशी खाने की चाह, विदेशी सौंदर्य प्रसाधन, आधुनिकता का पर्यायवाची हो गया। यह अंधी दौड़ लंबी समय तक चलती रही। इसी बीच बाबा राम देव के द्वारा स्वेदेशी उत्पादनों को तैयार करना प्रारंभ किया गया। तथा धीरेधीरे कुछ लोगों का रूझान स्वदेशी उत्पादों की ओर बढ़ना शुरू हो गया। परंतु फिर भी वही बड़ा आदमी जो विदेशी रेस्त्रां में खाना खाया। वही सोच बनी रही। स्वदेशी उत्पाद दोयम दर्जे के समझने में लगे रहे। बारह मई को माननीय प्रधानमंत्री जी ने अपने संबोधन में आत्मनिर्भरता की अलख जगाई है तथा स्वदेशी उत्पाद के प्रयोग का आह्वान किया है। जिससे देश के कामगारों को काम मिले और देश की अर्थव्यवस्था में मजबूती आए। लघु मध्यम तथा कुटीर उद्योगों के लिए बीस लाख करोड़ का पैकेज घोषित किया गया है। इससे इन उद्योगो को पूंजी निवेश के लिए धन मिलेगा। कुछ सरकारी विभागों को निर्देश दिया गया है कि इन उद्योगाे द्वारा निर्मित सामानो को खरीदे तथा 45 दिन के अंदर भुगतान करें। निश्चित रूप से यह कदम इन उद्योगों के लिए संजीवनी का काम करेगा। मुझे लगता है कि धीरे धीरे लोगों में स्वदेशी अपनाने की सुगबुगाहत शुरु हो गई है। यह देश प्रेम, देश की अर्थव्यवस्था सुधारने तथा देश को आत्म निर्भर बनाने में मील का पत्थर साबित होगा। गांधी जी के स्वराज का सपना भी सकार होगा। जय हिंद जय भारत।
माननीय प्रधानमंत्री जी ने दिनाँक 12 मई 2020 को संबोधन में निम्न श्लोक कहा था "सर्वं परवशं दुःखं सर्वं आत्म वशं सुखम् । एतद्विद्यात्समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः।"
अर्थात वह सब कुछ जो दूसरों के अधीन है वह दुख है। जो कुछ अपने बस में होता है वही सुख है। यही संक्षेप में सुख और दुख का लक्षण है। उपरोक्त श्लोक स्पष्ट रूप से आत्मनिर्भरता की ओर इशारा करता है। पिछले कुछ वर्षाे में यदि हम देखे तो पाएंगे कि किसी न किसी वस्तु के लिए दूसरों के ऊपर निर्भरता बढ़ रही थी। यदि हम भारत के ग्रामो पर दृष्टिपात करे तो पाएंगे कि कुछ वर्षो पहले तक हर किसान के पास छोटा मोटा घर, कोई न कोई दुधारू जानवर एवं थोड़ी बहुत खेती होती थी। जानवर को खिलाने के लिए हरा चारा उगाता था, सूखा चारा भूसा से हो जाता था तथा खेत से खाने भर को अनाज हो जाता था। घर के पास सब्जी बो देता था जिससे आलू प्याज को छोड़कर सब्जी निकल आती थी। बहुधा किसान आलू और प्याज भी निकाल लेते थे। जानवर से दूध मिल जाता था। गाय या भैंस को बेच कर पैसा भी इक्ठ्ठा कर लेता था। दूध से घी बनाकर, बेच कर पैसा भी मिल जाता था। मैने अपने बचपन में बहुत महिलाओं को किसी के घर पर बैठकर चरखा कातते देखा है। तब स्वंय सहायता समूह की अवधारणा नहीं थी। लेकिन अपने तौर तरीके से महिलाएं किसी के घर एकत्र होकर चरखा कातती थी तथा स्वराज देश भक्ति की गीत गाती थीं। मतलब यह हुआ कि प्रत्येक परिवार में अपने जीवन भर कि सभी सुविधाएं उपलब्ध थी। मसाले वगैरह को छोड़कर अपनी अवश्यकता की आपूर्ति स्वंय कर लेता था। धीरे-धीरे यह विचाधारा आई कि कई व्यावसाय न करके एक ही व्यावसाय किया जाए तथा बाकी जरूरत की वस्तुए खरीद ली जाए। उदाहरण स्वरूप किसी ने डेयरी लगाई उसी मेें सारे संसधान लगा लिया। मतलब खेती में हरा चारा उगाया, दूध को बेचकर पैसा इक्ठ्ठा किया तथा अन्य जरूरत की वस्तुओं को खरीद लिया। इसी प्रकार किसी ने पूरे खेत में बाग लगा दिया। फल के नीलामी से पैसा बनाकर जरूरत की अपनी वस्तुएं खरीद ली। इसी प्रकार निर्भरता दूसरों पर बढ़ने लगी। छोटी- छोटी वस्तुओं के लिए व्यक्ति दूसरों पर निर्भर होता चला गया। महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज के स्वप्न से हम दूर होते गए। इसी को देश स्तर पर देखा जाए। आजादी मिलने के बाद काफी हद तक हम अपने देश में निर्मित वस्तुओं का उपयोग करते रहे। धीरे-धीरे प्रचार तंत्र से प्रभावित होकर हमे विदेशी वस्तुओं का चस्का लगा। पहले गिनी चुनी वस्तुएं परंतु समय बीतने के साथ हम को हर छोटी बड़ी विदेशी वस्तुएं अच्छी लगने लगी। स्वेदेशी माने पिछड़ापन तथा विदेशी माने सभ्य तथा शहरी। स्वदेशी उपयोग करने वाले देहाती तथा गरीब की श्रेणी में आ गए। छोटी से छोटी वस्तुओं के लिए भी हमारी निर्भरता विदेशों पर बढ़ने लगी। ब्रांडेड का युग आया। हर वस्तु ब्रांडेड - चश्मा, घड़ी से लेकर होटल, रेस्त्रा व कपड़े इत्यादि । वही बड़ा आदमी, वही ज्ञानी जो ब्रांडेड वस्तुओं का इस्तेमाल करे। भौतिकता ने हमे जकड़ लिया। अपने खान, पान पहनावा को भूल गए। शहर से देहात तक विदेशी पहनावा, विदेशी खाने की चाह, विदेशी सौंदर्य प्रसाधन, आधुनिकता का पर्यायवाची हो गया। यह अंधी दौड़ लंबी समय तक चलती रही। इसी बीच बाबा राम देव के द्वारा स्वेदेशी उत्पादनों को तैयार करना प्रारंभ किया गया। तथा धीरेधीरे कुछ लोगों का रूझान स्वदेशी उत्पादों की ओर बढ़ना शुरू हो गया। परंतु फिर भी वही बड़ा आदमी जो विदेशी रेस्त्रां में खाना खाया। वही सोच बनी रही। स्वदेशी उत्पाद दोयम दर्जे के समझने में लगे रहे। बारह मई को माननीय प्रधानमंत्री जी ने अपने संबोधन में आत्मनिर्भरता की अलख जगाई है तथा स्वदेशी उत्पाद के प्रयोग का आह्वान किया है। जिससे देश के कामगारों को काम मिले और देश की अर्थव्यवस्था में मजबूती आए। लघु मध्यम तथा कुटीर उद्योगों के लिए बीस लाख करोड़ का पैकेज घोषित किया गया है। इससे इन उद्योगो को पूंजी निवेश के लिए धन मिलेगा। कुछ सरकारी विभागों को निर्देश दिया गया है कि इन उद्योगाे द्वारा निर्मित सामानो को खरीदे तथा 45 दिन के अंदर भुगतान करें। निश्चित रूप से यह कदम इन उद्योगों के लिए संजीवनी का काम करेगा। मुझे लगता है कि धीरे धीरे लोगों में स्वदेशी अपनाने की सुगबुगाहत शुरु हो गई है। यह देश प्रेम, देश की अर्थव्यवस्था सुधारने तथा देश को आत्म निर्भर बनाने में मील का पत्थर साबित होगा। गांधी जी के स्वराज का सपना भी सकार होगा। जय हिंद जय भारत।